Relevance of Religion in Contemporary Context : वर्तमान परिप्रेक्ष्य में धर्म की प्रासंगिकता


For Referencing - Ankit Dwivedee,  Vartamāna Pariprekṣya Meṁ Dharma Kī Prāsaṁgikatā (Sandarshan - Editor Prof. Rishikant Panday, Uttar Bharat Darshan Parishad, 2023-24),  ISSN    0975- 0835, Peer Reviewed,   Vol. 41, Page No. 42-45


शोध सार :- 

धर्म शब्द की उत्पत्ति धृ धातु से हुयी है, जिसका अर्थ होता है- ‘धारण करना’। भारतीय ज्ञान परम्परा में धर्म शब्द की विवेचना अपने अपने मतानुसार सभी धर्म व मतों ने की है। इन सभी धर्मों एवं मतों में सद्गुणों को धारण करना ही धर्म कहा गया है। निष्कर्षत: इन सभी मतों का उद्देश्य यही है कि व्यक्ति जब सद्गुणों को धारण करता है, वही धर्म है। अन्यथा की स्थिति में वह प्रलाप मात्र है। जिस प्रकार सूर्योदय होने से सूर्य का प्रकाश संसार को रोशनी प्रदान करता है, उसी प्रकार धर्म रूपी सूर्य के उदय होने से सद्गुण रूपी प्रकाश से संसार को रोशन करता है। आज संसार में दुर्गुण एवं अधर्म जिस प्रकार से अपने पाँव पसार रहा है, ऐसी स्थिति में धर्म ही वह माध्यम दिखायी देता है जिससे अधर्मों व दुर्गुणों का नाश हो सकता है। इसके लिए भारतीय ज्ञान परम्परा में वर्णित धर्म रूपी पुञ्ज पर्याप्त है। इस शोध आलेख में भारतीय ज्ञान परम्परा को आधार बनाकर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में धर्म की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला गया है।


बीज शब्द :-

धर्म, मानवता, नैतिकता, करूणा, मैत्री, मुदिता, समता

 

आज पूरी दुनिया में सम्पूर्ण मानव समाज को अनेक तरह के समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इस समस्या में आतंकवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद तथा रंगभेद को लिया जा सकता है। इनमें से एक समस्या जो काफी प्राचीन समय से ही चली आ रही है और आज भी मानवीय समाज में अपनी जड़ मजबूती से बनायी हुए है वह है धार्मिक कट्टरता या सम्प्रदायवाद। आज का  समाज विद्वेष, विभेद, असहिष्णुता, मानवीय विखंडिता, हिंसा, आतंक तथा मानवीय दुर्बलता आदि नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक रूप को बढ़ावा देता है। परिणामस्वरूप तथाकथित धर्म अनेक सम्प्रदायों में बँट गया है। मानव केवल मानव न रहकर हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई आदि रूपों में विभक्त नजर आता है। ऐसी स्थिति में धार्मिक कट्टरता का बढ़ना स्वाभाविक है। आज धर्म केवल कर्मकाण्डों, रूढ़िगत मान्यताओं, अंधविश्वासों एवं अप्रगतिशील अवधारणाओं पर अवलम्बित रह गया है। इसीलिए यह आवश्यक है कि वर्तमान संदर्भ में धर्म की प्रासंगिकता को स्पष्ट किया जाए।

 

वेदों, उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता, महाभारत तथा विभिन्न दर्शनों में धर्म को विश्व की व्यवस्था अथवा उसके मूल नियम के अर्थ में ग्रहण किया गया है। महर्षि कणाद द्वारा स्थापित वैशेषिक दर्शन में दी गयी धर्म की परिभाषा विस्तृत अर्थ की पुष्टि करती है। यहाँ धर्म को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि - 'धर्म वह है जो मनुष्य की सर्वान्गीण उन्नति तथा उसके कल्याण में सहायक हो’। धर्म के द्वारा मनुष्य अपने निश्चित लक्ष्य को प्राप्त करता है। कहा भी गया है - "यतो अभ्युदय: नि:श्रेयस् सिद्धि: धर्म:" अर्थात् धर्म जीवन की वह विद्या है जिससे अभ्युदय अर्थात् इस लोक में उन्नति और नि:श्रेयस् (मोक्ष) दोनों ही मिलते हैं। धर्म के ऐसे अनेक पहलु हैं, जो मानव के सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है। यह धर्म की ही शक्ति है कि एक धर्म के करोड़ों अनुयायी एक मंच पर एकजुट नजर आते हैं। उनके बीच आपसी प्रेम, भाईचारे की भावना, सहयोग तथा धार्मिक सहिष्णुता पायी जाती है। महात्मा गाँधी का कहना है कि राजनीति का जो विकृत रूप देखने को मिलता है, उसका एक प्रमुख कारण राजनीति में धर्मनीति का समाप्त हो जाना ही है।


धर्म का यथार्थ एवं वृहद रूप हमें सिखलाता है कि हम सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार मानें, हम सम्पूर्ण मानव जाति में एकत्व की अनुभूति करें तथा अत्यधिक भौतिक सुख सुविधाओं को त्यागकर भूखे और गरीबों के कल्याण का कार्य करें। केवल स्व के लिए जीना और मर जाना नहीं बल्कि भूखे को भोजन मिल सके, गरीब रोगी को उचित चिकित्सा मिल सके, बच्चों को अच्छी शिक्षा और संस्कार मिले, समाज में व्यक्ति-व्यक्ति में भेद न होकर उनके बीच आपसी प्रेम और भाईचारा हो, इसके लिए ही मानव को प्रयास करना चाहिए। यदि धार्मिक लोग अपने को इन मूल्यों पर खड़ा कर पाते हैं तभी वे अपने धर्म के सच्चे अनुयायी कहला सकते हैं और आज धर्म की प्रासंगिकता भी यही है कि मानव-मानव को एकजुट करें, उसे सद्गुण व मानवीय मूल्यों की ओर प्रेरित करें जिसका अभाव समाज में होता जा रहा है। महान समाज सुधारक विनोबा जी, गाँधी जी तथा टैगोर जी के अनुसार सबसे बड़ा धर्म मानवतावाद है जिसका लक्ष्य दु:खित, शोषित, पीडित, दलित, वंचित लोगों की सेवा करना तथा उसे समाज की मुख्यधारा में लाना। इसके अलावा संसार के सभी प्राणियों के प्रति दया, करूणा, मैत्री, सहिष्णुता, प्रेम, अहिंसा तथा विश्व बंधुत्व की भावना बनाएं रखना।


बुद्ध एवं रवीन्द्रनाथ टैगोर की दृष्टि में मानव धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है। टैगोर की दृष्टि में धर्म किसी विशेष जाति या राष्ट्र तक सीमित नहीं होता बल्कि कोई भी व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार किसी भी विशेष धर्म को अपना सकता है। लेकिन धर्म अंत: विश्लेषण में अपने विशेष रूप से स्वतंत्र है। टैगोर के मानवतावाद का सार है कि मानवीयता की अनुभूति ही किसी भी वस्तु या तत्त्व में मानवीयता देखना उनके या उनके मानवीय रूपों को पा लेना ही आनंद है।

 

‘महात्मा गाँधी धर्म व नैतिकता के बीच अवियोज्य संबंध मानते हैं।’ न तो धर्म के अभाव में नैतिकता की कल्पना की जा सकती है और न ही नैतिकता के अभाव में धर्म की कल्पना की जा सकती है। धर्म के लिए इच्छा-स्वतंत्रता और अभय दोनों ही आवश्यक है। जब तक मनुष्य यंत्र की तरह कार्य करता है तब तक उसके कर्मों का नैतिक मूल्यांकन नहीं हो सकता। उसके कर्मों का नैतिक मूल्यांकन तभी संभव है जब वह स्वतंत्र रूप से अपना कार्य सम्पादित करें। इसके साथ ही मनुष्य को अभय होना चाहिए। अगर वह भय या दबाव के अन्तर्गत कोई कर्म करता है तो उन कर्मों का नैतिक मूल्यांकन संभव नहीं है। इसीलिए धर्मों के नैतिक मूल्यांकन के लिए इच्छा स्वतंत्र तथा अभय आवश्यक है। नैतिकता प्रत्येक धर्म का आवश्यक अंग है। इसीलिए गाँधीजी की दृष्टि में धर्म एवं नैतिकता के बीच अवियोज्य संबंध है। ‘ज्योंही हम नैतिक आधार खो देते है त्योंही हमारा धर्म भी समाप्त हो जाता है।’ हरिजन में लिखे गाँधी जी के अनुसार- ‘आचरण, नैतिकता और धर्म परिवर्तनीय पद है।’


महर्षि वेदव्यास जी के अनुसार धर्म को आचरण में धारण कर, जो व्यवहार ख़ुद पसन्द न हो वो दूसरे के साथ न करने को कहा गया है- “श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वाचाप्यवधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥”

 

गोस्वामी जी धर्म को दूसरे के कल्याण के भाव में बताते है-

 “परहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीड़ा सम दुःख अधिनाई।।”


मनुस्मृति में धार्मिक व्यक्तियों के लिए दस लक्षण बताते हुए कहा गया है कि – 

“धृतिः क्षमादमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।”

 

गौतम बुद्ध का धर्म भी मानव कल्याण की भावना से ओतप्रोत है। बुद्ध की दृष्टि में सच्चा धर्म वही है जो करूणा, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य पर आधारित हो। बुद्ध के दर्शन का आधार ही - रोती सिसकती आँखों के आँख को पोछना। इनकी दृष्टि में सच्चा धर्म वही है जो दु;ख से ग्रस्त एवं पीड़ित मानवता की सेवा करने की ओर जागृत करें, जो ऐसा करते हैं वही सच्चे मानव धर्म को अपनाते है। सत्य वचन का पालन करना, किसी प्राणी की हिंसा न करना, आवश्यकता से अधिक संपत्ति अर्जित न करना, इन्द्रियों को वश में करने के साथ-साथ करूणा, मैत्री, बंधुत्व, प्रेम, सहिष्णुता का भाव रखना ही सच्चा धर्म है।

 

धर्म शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में अनेक बार हुआ है। ऋग्वेद की ऋचा में "तानि धर्मानि प्रथमान्यासन्"  के रूप में प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद में ‘धर्म तथा धर्मन का उल्लेख हुआ है।’ अथर्ववेद में ‘धर्म का अर्थ न तो किसी क्रिया से है न ही किसी नियम से बल्कि क्रिया से उत्पन्न गुण से है।’ यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है, धर्म का आधार क्या है ? अर्थात् धर्म का श्रोत क्या है ? इस संबंध में गौतम धर्मसूत्र के अनुसार – “वेदोंहि धर्ममूलम् अर्थात वेद धर्म का मूल है।”  इस संबंध में मनुस्मृति में कहा गया है कि – “वेदोअखिलों धर्ममूलम् स्मृतिशिले च तद् विदाम्।” याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म के संबंध में कहा गया है कि"श्रुति: स्मृति: सदाचार: स्वस्यच प्रियमात्मन:। सम्यक संकल्पज: कामो धर्ममूलमिदं स्मृतं ।।

 

अर्थात् श्रुति, स्मृति, सदाचार, आत्मप्रीति, सम्यक् संकल्प जनित काम यह सब धर्म के मूल माने जाते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि धर्म या धार्मिकता के निरूपण में वेद एवं स्मृति जैसे ग्रन्थों की बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।इशोपनिषद् में कहा गया है कि “धर्म के माध्यम से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है।”  महाभारत एवं रामायण में धर्म की चर्चा की गयी है। रामायण में धर्म का फलवादी स्वरूप प्राप्त होता है। “यहाँ वर्णाश्रम और राजधर्म का निरूपण है।” श्रीमद्भगवद् गीता में निष्काम कर्म को संपादित करना ही धर्म माना गया है जो अनासक्त भाव से किया जाता है। इस बात की पुष्टि गीता में की गयी है - “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।

 

धर्म के संबंध में यह भी कहा गया है कि “धर्म वह है जो पशुता से मनुष्यता तक और मनुष्यता से देवत्व तक उठा देती है।”  समकालीन महान दार्शनिक स्वामी विवेकानंद के अनुसार धर्म की परिभाषा नहीं दी जा सकती तथा धर्म के स्वरूप का पूर्णतया निश्चित विवरण नहीं दिया जा सकता। धर्म के स्वरूप को समझने के लिए आंतरिक अनुभूति की आवश्यकता है। धर्म केवल इन्द्रियों की सीमा से ऊपर उठने का प्रयास मात्र नहीं है बल्कि इसका लक्ष्य शुद्ध बौद्धिक विवेचनाओ से ऊपर उठने का है। विवेकानन्द की दृष्टि में धर्म का अर्थ आध्यात्मिकता को जागृत करना है, अपने अंदर के ईश्वरत्व को जगाना है। इस बात की पुष्टि कठोपनिषद् में की गयी है-  “उत्तिष्ठत् जाग्रत् प्राप्य वरान निबोधत।”  विवेकानन्द के अनुसार धर्म का विशेष अर्थ तथा मूल्य होता है, साथ ही धर्म में सामाजिकता का भी अंश मौजूद रहता है। विवेकानन्द के अनुसार धर्म नैतिकता के लिए भी एक सशक्त आधार प्रस्तुत करता है।


इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि मानव जीवन में धर्म एवं धार्मिकता का अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। धर्म मानव को नैतिक बनाने में अत्यंत ही सहायक होता है, क्योंकि धर्म मनुष्य को उसके कर्तव्य पथ की ओर आगे ले जाने में सहायक होता है। धर्म में वह शक्ति है जो मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाता है। साथ ही साथ मानव के आन्तरिक कुरीतियों को दूर करने में सहायक होता है क्योंकि धर्म से तात्पर्य है अपने कर्तव्यों को सम्यक् पूर्वक निर्वहन करना। यदि व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों को कर्त्तव्य की भावना से प्रेरित होकर अनासक्त पूर्वक कार्य सम्पादित करें तो निश्चित ही मानव अपने नैतिक जीवन के बहुमूल्य आदर्श को प्राप्त कर सकता है तथा सभी प्रकार की विकृतियों से निजात पाकर अपने अंत:करण को परिशुद्घ कर सकता है। वर्तमान परिदृश्य में धर्म को राजनीति से जोड़ दिया गया है, जिसे धर्म का राजनीतिकरण कहा जाता है। धर्म का राजनीतिकरण करने से धर्म का मूलार्थ ही विकृत हो जाता है। इसीलिए किसी भी धर्म को किसी भी प्रकार के अंधविश्वास, वाह्याडंबर इत्यादि पर आधारित नहीं होना चाहिए।


आपके सुझाव आमंत्रित है।


अंकित द्विवेदी,

शोध छात्र,

बौद्ध अध्ययन विभाग,

नव नालन्दा महाविहार,

संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार,

नालन्दा (बिहार), 803111

Email - apkdwivedee@gmail.com

Mobile- 9570739208










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