Importance of Paramitas in Jataka Tales : जातक कथाओं में पारमिताओ का महत्त्व

For Referencing - Ankit Dwivedee  Jātaka Kathāoṁ Meṁ Pāramitāoṁ Kā Mahattva (Darshnik Traimashik, Akhil Bhartiya Darshan Parishad, Oct-Dec 2024), ISSN 0974-8849, UGC Care – Group 1 – Sl No. 4, Page No. 165-170


शोध सार -


जातक कथाएं पालि त्रिपिटक का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसमें बुद्ध की पूर्वजन्म के लगभग 550 कथाओ का संग्रह है। जातक का शाब्दिक अर्थ है जन्म संबंधी। पालि त्रिपिटक को बुद्धवचन माना जाता है। यहाँ बुद्धवचन से तात्पर्य है - 'भगवान बुद्ध द्वारा दिए गए उपदेश।' भगवान बुद्ध ने अपने उपदेशों में, प्रवचनों में इन कथाओ का उपयोग किया है। भारत में कथा साहित्य का इतिहास अत्यंत ही प्राचीन है। लेकिन कथा साहित्य स्वतंत्र रूप से हमारे पास उपलब्ध नहीं है। वह जन-जीवन में, लोक साहित्य में तथा लोक कथाओ के रूप उपलब्ध है। इसी प्रकार बौद्ध, जैन और ब्राह्मण साहित्य में परिवर्तित, परिमार्जित, परिवर्धित तो कहीं विकृत रूप में उपलब्ध है।

 

भारत का प्राचीन कथा साहित्य केवल धार्मिक रूप के महत्व में ही नहीं बल्कि सामाजिक साहित्य के रूप में भी हैं। और सभी धर्मों में उन कथाओ का उपयोग किया गया है। भारत का धार्मिक कथा साहित्य जातक जन कथाओ से तथा लोक कथाओ से समृद्ध हुआ है। पालि जातक कथाओ पर भी तात्कालिक लोक कथाओ का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखायी देता है।

 

प्रस्तुत शोध आलेख में वर्णित पारमिताओ का विवेचन करना ही मुख्य ध्येय है। यद्यपि जातक कथाओ की विषय वस्तु अत्यंत ही विस्तृत एवं व्यापक है। लेकिन यहाँ केवल पारमिताओ का जातक कथाओ में किस प्रकार वर्णन किया गया है तथा दस पारमिताओ की पूर्णता के लिए जातक कथाओ की क्या सार्थकता रही होगी। इस पर प्रयास डालने का शोधकर्ता के द्वारा प्रयास संक्षेप में किया जा रहा है।


बीज शब्द - पारमिता, जातक, पालि, मैत्री 

 

पारमिता शब्द का शाब्दिक अर्थ है पूर्णत्व। बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए पारमिताओ का पूरण अत्यावश्यक है। जातक के निदानकथा से यह स्पष्ट होता है कि बुद्धत्व की आकांक्षा रखने वाले सुमेध नामक ब्राह्मण के अथक परिश्रम करने के उपरांत 10 पारमिताएं पूर्ण हुई। जो निम्न है-

 

दान, शील, नैष्कर्म्य, प्रज्ञा, वीर्य, क्षान्ति, सत्य, अधिष्ठान, मैत्री तथा उपेक्षा। उपर्युक्त पारमिताओ की पूर्णता प्राप्त कर शाक्यमुनि ने 550 विभिन्न जन्मों में उत्पन्न होकर सम्यक सम्बोधि अर्थात् बुद्धत्व पद की प्राप्ति की।

 

बौद्ध ग्रंथों में आसक्ति भाव अथवा राग को तीन प्रकार के अकुशल मूलों में से एक माना गया है। जब तक मानवीय चित्त अनेक प्रकार के राग, द्वेष, लोभ, मल आदि से युक्त रहता है तब तक चित्त शुद्धि या बोधि ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। दान पारमिता के तहत राग या आसक्ति के परित्याग पर बल दिया गया है। एक बोधिसत्व को इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि दान किसे दिया जाए और कैसे दिया जाए। इस संबंध में बुद्ध ने कहा है कि सद्पात्र व्यक्तियों के लिए सभी वस्तुओ का दान यहाँ तक कि प्राण दान भी युक्ति संगत है। दान के लिए फल का परित्याग आवश्यक है। दान पारमिता का सबसे सुंदर वर्णन मिलिन्दप्रश्न ग्रंथ के वेसेन्तरवग्गो में उपलब्ध है। यहाँ राजा वेसेन्तर द्वारा अपने स्त्री व बच्चों को दान करने का बड़ा ही मार्मिक वर्णन देखने को मिलता है।

 

पारमिताओ में शील पारमिता का दूसरा स्थान है। चित्त की परिशुद्घि के लिए पारमिता का अभ्यास परम आवश्यक है। शील का प्रमुख उद्देश्य चित्त की रक्षा है। क्योकि ऐसा चित्त ही दुख संतप्त प्राणियों की सहायता करने के योग्य हो सकता है। शील का अर्थ है - 'प्राणातिपात आदि समग्र अकुशल कर्मो से विरति।' शील पारमिता की पूर्णता प्राप्त करने के लिए सुमेध पंडित दृढ़संकल्प करते है कि जिस प्रकार मृग अपने जीवन की परवाह न कर पूछ अपने पूँछ की रक्षा करता है। उसी प्रकार, मैं अब से लेकर जीवन की परवाह किए बगैर शील रक्षा करते हुए बुद्धत्व की प्राप्ति करूँगा। इस प्रकार बोधिसत्व द्वारा आत्मत्याग करते हुए शील पारमिता परमार्थ पारमिता के रूप में संपन्न हुयी।

 

पारमिताओ में नैष्कर्म्य पारमिता का स्थान तृतीय है। बोधिसत्व (सुमेध पंडित) के द्वारा पारमिताओ में नैष्कर्म्य पारमिता की पूर्णता के लिए दृढ़संकल्प कर अभ्यास किया गया है। जिस प्रकार जेल में रहने वाले चीर काल तक मनुष्य जेल के प्रति स्नेह नहीं रखता। उसी प्रकार सभी योनियों को जेल के समान जानकर सभी योनियों से विरक्त होते हुए उन्हें छोड़ने की उत्कट अभिलाषा से नैष्कर्म्य की ओर अग्रसर होते हुए बुद्धपद को पाने का दृढ़संकल्प किया जाता है। बोधिसत्व का चित्त कर्णा रूपी उपाय कौशल्य से परिग्रहित होकर काम भवों से निष्क्रमण चित्त उत्पन्न होता है। इस प्रकार निलिप्त हो राज्य छोड़कर कामना रहित होते हुए बोधिसत्व की नैष्कर्म्य पारमिता संपन्न होती है।

 

पारमिताओ में प्रज्ञा पारमिता का चतुर्थ स्थान है। इसे सर्वोपरि पारमिता भी कहा गया है। जब समाधि द्वारा चित्त को निर्मल व शुद्ध कर लिया जाता है तो प्रज्ञा का उदय होता है। प्रज्ञा का प्रादुर्भाव होते ही साधक संसार के यथार्थ स्वरूप को स्पष्ट रूप से जान लेता है तथा अनुभव भी करता है। प्रज्ञा का सामान्य अर्थ है - 'जानना, ज्ञान, बुद्धि, प्रकाश या विद्या।' बौद्ध धर्म के समस्त तत्त्व यदि शरीर है तो प्रज्ञा उसका चक्षु और चेतना है। यही कारण है कि यहाँ अविद्या को अंधकार या अज्ञान जबकि प्रज्ञा को ज्ञान कहा गया है। प्रज्ञा ऐसा प्रकाश है जो मोह अर्थात् अविद्या रूपी अंधकार का नाश करता है। भगवान बुद्ध ने प्रज्ञा से ही प्रकाशित होकर संसार के मोह रूपी अंधकार का नाश किया -

 

करूणा शीतल हदयं पञ्ञापज्जो विहतमोहतं।

सनरामरलोकगुरू वंदे सुगतं गति विभुतं ।।

 

पारमिताओ में वीर्य पारमिता का पाँचवा स्थान है। वीर्य का अर्थ उत्साह होता है। जैसे वायु के बिना गति संभव नहीं है, उसी प्रकार उत्साह के बिना पुण्य संभव नहीं है। वीर्य और पराक्रम के बल पर ही परम ज्ञान की प्राप्त किया जा सकता है। महाकपि जातक में कहा गया है कि बोधिसत्व वानर राज विपत्ति में पड़े अपने 80 हजार वानरों को अपने शरीर के ऊपर से नदी पार करा कर अपने महान वीर्य का उदाहरण प्रस्तुत करता है। वीर्य पारमिता के पूर्ति की कोई सीमा नहीं। महाजनक जातक में कहा गया है कि जल में डूबने पर भी किनारा न देख सकने वाले सभी मनुष्य भय से मर गए लेकिन बोधिसत्व के चित्त में विकार उत्पन्न नहीं हुआ। यह बोधिसत्व के वीर्य पारमिता थी। इसी प्रकार महासमुद्र को पार करते हुए बोधिसत्व की वीर्य पारमिता परमार्थ पारमिता के रूप में परिणित हुई।

 

क्षान्ति पारमिता का पारमिताओ में छठा स्थान है। भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को यह उपदेश दिया था कि वैर से वैर कभी शांत नहीं होते बल्कि अवैर से वैर शांत होता है-

 

न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तिध कुदाचनं।

अवेरेन च समन्ति एस धम्मो सनन्तनो ।।

 

इसीलिए आचार्य शांतिदेव ने इस पारमिता का अभ्यास करने पर जोर देते हुए कहा है कि

 

क्षमेत श्रुतमेषेत संश्रयेत वनं तत:।

समाधानाय युज्येत भावयेदशुभादिकम्।।

 

अर्थात मनुष्य के मन में सर्वदा शान्ति रहनी चाहिए क्योंकि जिसमे क्षमा करने की शक्ति नहीं है उसका पराक्रम या वीर्य नष्ट हो जाता है। इसीलिए समाहित चित्त होकर क्षान्ति का अभ्यास करना चाहिए।

 

आचार्य शांतिदेव ने तीन प्रकार की क्षान्ति बतलायी है - दुखादिवासना क्षान्ति अर्थात् ऐसी क्षान्ति जिसमे बहुत से अनिष्ट के आ जाने पर भी कोई दुख उत्पन्न न हो। दूसरी क्षान्ति परापकारमर्षण क्षान्ति कहलाती है, इसका अर्थ है दूसरे के द्वारा किए गए अपकार को सहन करना और अपकार के बदले में प्रत्युपकार न करना होता है। तीसरी क्षान्ति के रूप में धर्मनिध्यान क्षान्ति है, इसके अनुसार बतलाया गया है कि संसार के समस्त धर्म क्षणिक होते है। यदि समस्त धर्म क्षणिक होते है तो इस पर द्वेष या क्रोध न करे। इसीलिए द्वेष के उपसमन के लिए क्षान्ति पारमिता के अभ्यास पर काफी बल दिया गया है।

 

पारमिताओ में सत्य पारमिता का साँतवा स्थान है। जिस प्रकार शुक्र का तारा, चाहे कोई ऋतु हो, अपने गगन मार्ग को छोड़कर दूसरे मार्ग में नहीं जाता, अपने ही मार्ग में रहता है। उसी प्रकार बोधिसत्व केवल सत्य मार्ग को अपनाते हुए इस पारमिता की पूर्ति का प्रयास करते है।बोधिसत्व की दृढ़ निश्चय कर के सत्य पारमिता की पूर्ति के लिए अभ्यासरत होते हैं। चाहे सिर पर बिजली गिरे, धन आदि का बहुत लोभ हो तो भी जानबूझकर झूठ नही बोलना चाहिए। सत्य स्वीकृति एवं प्रतिपादन ही सत्य पारमिता का कार्य है। सत्य के बिना शीलों का पालन करना असंभव है। अपने दृढ़संकल्प के पालन में बोधिसत्व सत्य-असत्य, जो सभी प्रकार के पाप कर्मो का मूल और आश्रय है का सर्वथा परित्याग करते है। बोधिसत्व हमेशा सत्य के अधिष्ठान से युक्त होकर सत्य पारमिता को प्राप्त करते है।

 

पारमिताओ में अधिष्ठान पारमिता का आठवाँ स्थान है। अधिष्ठान का सामान्य अर्थ होता है- 'दृढ़संकल्प करना।'बोधिसत्व सभी पारमिताओ की पूर्ति करने में अधिष्ठान का सहारा लेता है। सच पूछा जाए तो वास्तव में अधिष्ठान पारमिता स्थान आठवाँ नहीं बल्कि सर्वप्रथम होना चाहिए। क्योंकि सभी कुशल धर्मों के संपादन में अधिष्ठान की परम आवश्यकता होती है। उन पारमिताओ की पूर्ति में उनकी स्वीकृति उनके अनुसार चरिया पालन करते, निरंतर हुए दृढ़संकल्प करने जाना ही अधिष्ठान पारमिता की पूर्ति है। जिस प्रकार जल, पुण्यात्मा एवं पापी दोनो के लिए समान रूप से शीतलता प्रदान करता है। उसी प्रकार बोधिसत्व सभी प्राणियों के लिए एक जैसी मैत्री भावना रखते है और अधिष्ठान की शक्ति से मैत्री पारमिता की पूर्ति करते है। दीघनिकाय में चार प्रकार अधिष्ठान - प्रज्ञा-अधिष्ठान, सत्य-अधिष्ठान, त्याग-अधिष्ठान और उपसम अधिष्ठान। अधिष्ठान को सभी पारमिताओ का ही नहीं अपितु सभी कुशल कर्मो का भी मूलाधार कहा जा सकता है। इन चारों अधिष्ठान से युक्त व्यक्ति शांतमुनि कहलाता है।

 

पारमिताओ में मैत्री पारमिता का स्थान नौंवा है। मैत्री का अर्थ है- 'भावना या उदारता।' मैत्री चार ब्रह्म विहारों में प्रथम कड़ी है। मैत्री का सामान्य अर्थ सहृदयता या मित्रत्व है लेकिन बोधिसत्व की मैत्री इससे बहुत अर्थ रखती है। बोधिसत्व के हृदय में परहित और इह परलोक संपति, सभी प्राणियों को लोकोत्तर संपति, निर्वाण के लिए करूणा एवं असीम मैत्री उत्पन्न होती है। बोधिसत्व के हृदय में सभी प्राणियों के प्रति असीम करूणा, प्रेम व दया होती है। सत्वों के प्रति उनके मन में कभी भी द्वेष, क्रोध या वैर नहीं होता। वैरी के प्रति वे मित्रवत व्यवहार करते है। सामाजिक संबंधों की रक्षा एवं समस्त अनाचारों से बचने के लिए एक प्रबल प्रत्यय हैं। इस प्रकार बोधिसत्व मैत्री पारमिता की पूर्ति करने के लिए अथक प्रयास करते हुए बुद्धत्व को प्राप्त करते है।

 

पारमिताओ में दसवाँ एवं अंतिम स्थान उपेखा पारमिता का है। उपेखा का सामान्य अर्थ है - 'उपेक्षा भाव या मध्यथ भाव।' बोधिसत्व पूजा, सत्कार, सम्मान, क्रूरता अथवा अपमान एवं समस्त लोक धर्मों में मध्यथ समुचित एवं निर्विकार रहकर अनुत्तर सर्वज्ञता की प्राप्ति के लिए उपेखा पारमिता की पूर्ति करते है। उपेखा मैत्री को संतुलित रखती है, उसे उसकी सीमा के बाहर रागात्मक वन जाने में अवरोध करती है। संसार के समस्त प्राणियों के प्रति समान रूप से प्रेम की भावना होती है तो उसे मैत्री की संज्ञा दी जाती है। उपेखा पारमिता के अभ्यास में बोधिसत्व के चित्त की स्थति दृढ़ एवं अचल होती है।

 

इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि पारमिताओ के अभ्यास एवं शिक्षा से बोधिसत्व की साधना सफल होती है। बोधिसत्व बुद्धत्व की प्राप्ति कर, सभी प्राणियों के कल्याण के महान कार्य में लग जाते है। बोधिसत्व के जीवन का प्रत्येक क्षण समस्त प्राणियों के उद्धार तथा कल्याण में तत्पर रहता है। उसका समस्त कार्य परहित की भावना से प्रेरित होकर संपादित किया जाता है। संक्षेप में कह सकते है कि पारमिताओ की पूर्ति न केवल बौद्ध धर्म बल्कि सभी धर्मो का परम लक्ष्य एवं सार है। बुद्धेत्तर संसार के जितने धर्म है उन सभी धर्मो में त्याग, दान, करूणा, मैत्री, शान्ति, विश्व बंधुत्व, साधना इत्यादि पर बल दिया गया है लेकिन बौद्ध धर्म में इसपर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है।


आपके सुझाव आमंत्रित है।


अंकित द्विवेदी,

शोध छात्र,

बौद्ध अध्ययन विभाग,

नव नालन्दा महाविहार,

संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार,

नालन्दा (बिहार), 803111

Email - apkdwivedee@gmail.com

Mobile- 9570739208


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